‘‘अब कैसे क्षमदान करूं’’
खून चूस लिया शोषकों ने, कैसे अब रक्तदान करूं।
संघर्ष करते शरीर सूख गया, कैसे जीवनदान करूं।।
मालपुआ, रसगुल्ला, रबड़ी, व्यंजन के ये नाम सुने।
चटनी के संग रोटी खाता, कैसे अब फलदान करूं।।
पत्थर, हीरा, बालू, सागौन, का भी का तो चोर नहीं।
एक इंच भी जमीन नहीं है, कैसे भूमिदान करूं।।
नहीं हूं अफसर, न चपरासी, एक मजूर सा है जीवन।
अतिरिक्त कोई आय नहीं है, कैसे दौलतदान करूं।।
जीवन भर तो जिन आंखों को, शोषण-भ्रष्टाचार दिखा।
मृत्यु बाद भी नयन अन्याय देखें, फिर किसको नेत्रदान करूं।।
तीरथ करने से बढ़कर है, कन्याओं का कन्यादान।
गायों की दुर्दशा देखकर, कैसे बछियादान करूं।।
मानव के कल्याण की खातिर, अब तक लिखा गया लेखन।
विद्धान भी समझ सके न, कैसे सृजनदान करूं।।
सरेआम शोषक ने चिन्तक, इज़्ज़त पर हमला बोला।
बार-बार के गुनहगार को, अब कैसे क्षमादान करूं।।
लक्ष्मी नारायण चिरोलया, ’’चिंतक’